Main Kab Marunga Ya Kab Marungi | मैं कब मरूंगा/मरूंगी?

मैं कब मरूंगा/मरूंगी? मौत के वक्त पर साइंस की बातें और इस्लामी नजरिया

मौत का सवाल हर इंसान के दिमाग में कभी न कभी जरूर आता है। "मैं कब मरूंगा?" या "मैं कब मरूंगी?" ये सवाल सिर्फ डर ही नहीं लाता, बल्कि जिंदगी की अनिश्चितता को भी दिखाता है। दुनिया में लोग इस सवाल का जवाब ढूंढते हैं, कोई साइंस से तो कोई धर्म से। इस लेख में हम बात करेंगे कि साइंस क्या कहता है मौत के वक्त के बारे में, कौन से कारण उसको प्रभावित करते हैं, और इस्लाम में मौत को कैसे देखा जाता है। ये लेख के हिसाब से लिखा गया है, जिसमें कीवर्ड जैसे "मैं कब मरूंगा", "मौत कब आएगी", "इस्लामी नजरिया मौत पर" वगैरह डाले गए हैं, ताकि आपको आसानी से जानकारी मिले।


Main Kab Marunga Ya Kab Marungi | मैं कब मरूंगा/मरूंगी?


लेख में जिसमें साइंस के तथ्य और इस्लामी नजरिया दोनों को आसान भाषा में समझाया गया है। चलो, शुरू करते हैं।

मौत का सवाल: हर इंसान की जिज्ञासा

हर कोई मौत के बारे में सोचता है। ये सवाल डराता भी है और जिंदगी की कीमत समझाता भी है। साइंस की नजर में मौत एक बायोलॉजिकल प्रोसेस है, जिसमें शरीर का काम करना बंद हो जाता है। दिल की धड़कन, सांस और दिमाग की हरकत रुक जाती है। लेकिन कब? ये कई चीजों पर निर्भर करता है। दूसरी तरफ, इस्लाम में मौत को अल्लाह की मर्जी माना जाता है, जो पहले से तय है। कुरान में लिखा है कि हर इंसान को मौत का स्वाद चखना है (सूरह आले इमरान 3:185)। ये आयत बताती है कि मौत से कोई बच नहीं सकता।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुताबिक, 2000 से 2019 तक दुनिया में औसत उम्र 66.8 साल से बढ़कर 73.1 साल हो गई। लेकिन क्या हम ये जान सकते हैं कि हमारी मौत कब होगी? साइंस कहता है कि औसत तो बता सकते हैं, लेकिन किसी एक इंसान का वक्त नहीं। इस्लाम कहता है कि ये सिर्फ अल्लाह को पता है।

साइंस की बात: जिंदगी की उम्र और मौत का वक्त

साइंस मौत को जिंदगी का आखिरी पड़ाव मानता है। इंसान की औसत उम्र कई चीजों से तय होती है। 1900 में एक बच्चे की औसत उम्र सिर्फ 32 साल थी, जो 2021 तक बढ़कर 71 साल हो गई। ये सब बेहतर दवाइयों, अच्छे खाने और साफ-सफाई की वजह से हुआ।

लेकिन स्टडीज बताती हैं कि इंसान की जिंदगी की अधिकतम सीमा 90-95 साल है। एक रिसर्च में कहा गया कि 21वीं सदी में जिंदगी को और लंबा करना मुश्किल है। 100 साल तक पहुंचने की संभावना औरतों के लिए 15% और मर्दों के लिए 5% से भी कम है। साइंटिस्ट मानते हैं कि बिना किसी बड़े बायोलॉजिकल बदलाव के 95 साल से ज्यादा जिंदगी मुश्किल है।

मौत का वक्त किन चीजों से तय होता है? चलो देखते हैं:

1. जीन की बात

आपके जीन यानी खानदानी गुण मौत के वक्त को प्रभावित करते हैं। रिसर्च बताती है कि माता-पिता की उम्र और लंबी जिंदगी का आपके जीन से कनेक्शन है। अगर आपके घर में लोग ज्यादा उम्र तक जीते हैं, तो आपकी उम्र भी बढ़ सकती है। लेकिन जीन सिर्फ 20-30% असर डालते हैं, बाकी आपकी जिंदगी का तरीका तय करता है।

2. जिंदगी का ढंग और आदतें

सिगरेट, शराब, एक्सरसाइज न करना और गलत खान-पान मौत को जल्दी बुलाते हैं। WHO कहता है कि दिल की बीमारी, कैंसर और शुगर जैसी बीमारियां उम्र कम करती हैं। अगर आप नियमित व्यायाम करें और सही खाना खाएं, तो 10-15 साल ज्यादा जी सकते हैं।

3. आसपास का माहौल और मेडिकल सुविधाएं

प्रदूषण, हादसे और बीमारियां मौत का कारण बनते हैं। जिन देशों में अच्छी मेडिकल सुविधाएं हैं, वहां लोग ज्यादा जीते हैं। मिसाल के तौर पर, जापान में औसत उम्र 84 साल है, जबकि कुछ अफ्रीकी देशों में 50 साल से भी कम।

4. सामाजिक और सांस्कृतिक चीजें

रिश्ते, टेंशन और पैसों की हालत भी उम्र पर असर डालती है। गरीबी में मौत जल्दी आती है, जबकि अच्छे दोस्त और रिश्तेदार जिंदगी बढ़ाते हैं।

ये तथ्य बताते हैं कि मौत का वक्त कुछ हद तक कंट्रोल किया जा सकता है, लेकिन पूरी तरह नहीं। अब देखते हैं इस्लाम क्या कहता है।

इस्लामी नजरिया: मौत अल्लाह की मर्जी

इस्लाम में मौत को जिंदगी का अंत नहीं, बल्कि परलोक की शुरुआत माना जाता है। कुरान में लिखा है: "हर जीव को मौत का स्वाद चखना है, और कयामत के दिन तुम्हें पूरा हिसाब मिलेगा।" (सूरह आले इमरान 3:185) मौत का वक्त पहले से तय है, जिसे "नियति" कहते हैं। कुरान कहता है: "जब वक्त आता है, तो न एक घंटा आगे हो सकता है, न पीछे।" (सूरह यूनुस 10:49, सूरह नहल 16:61)

हदीस में पैगंबर मुहम्मद (सल्ल.) ने फरमाया कि मौत का वक्त तय है, और कोई उसे बदल नहीं सकता। मुसलमान मानते हैं कि मौत अल्लाह की मर्जी से आती है, चाहे इंसान कितना भी सावधान रहे। मिसाल के तौर पर, कुरान में है: "तुम जहां कहीं भी हो, मौत तुम्हें ढूंढ लेगी, चाहे तुम मजबूत किलों में छिपे हो।" (सूरह निसा 4:78)

इस्लाम में मौत को एक तोहफा माना जाता है, जो दुनिया की तकलीफों से आजादी देता है। मौत के वक्त आत्मा शरीर से अलग होती है। अच्छे लोगों की आत्मा आसानी से निकलती है, जबकि गलत काम करने वालों की तकलीफ से। मौत के बाद कब्र का जीवन शुरू होता है, जहां आत्मा से सवाल-जवाब होते हैं। फिर कयामत के दिन हिसाब होगा।

कुरान और हदीस की बातें

  • सूरह मुमिनून 23:99: "जब मौत आती है, तो लोग कहते हैं, हे अल्लाह, मुझे वापस भेज दे।"
  • सूरह जुमर 39:42: "अल्लाह मौत के वक्त आत्माओं को ले लेता है।"
  • हदीस: "जब कोई मरता है, उसकी आत्मा कब्र में जाती है।"

इस्लाम सिखाता है कि मौत की तैयारी अच्छे कामों से करो, क्योंकि वक्त का कुछ पता नहीं।

मौत के बाद क्या? साइंस और इस्लाम की नजर

साइंस कहता है कि मौत के बाद शरीर सड़ने लगता है। शरीर ठंडा पड़ता है, मांसपेशियां अकड़ जाती हैं, और बैक्टीरिया शरीर को तोड़ देते हैं। लेकिन दिमाग की चेतना? साइंस कहता है कि दिमाग बंद होने के बाद सब खत्म।

इस्लाम में मौत के बाद आत्मा जिंदा रहती है। मौत के वक्त फरिश्ते आत्मा को निकालते हैं। कब्र में सवाल-जवाब होते हैं। अच्छी आत्मा को जन्नत की झलक मिलती है, और पापी को जहन्नम की। फिर कयामत तक इंतजार।

जिंदगी कैसे जिएं: साइंस और इस्लाम से सीख

"मैं कब मरूंगा" का जवाब ढूंढने से अच्छा है जिंदगी को सही से जीना। साइंस कहता है कि अच्छी आदतें डालो, जैसे सही खाना और एक्सरसाइज। इस्लाम कहता है कि अच्छे काम करो, क्योंकि मौत का वक्त अनिश्चित है। दुआ करो: "हे अल्लाह, मुझे मुसीबत में सहारा दे और उससे बेहतर दे।"

मौत को प्रभावित करने वाली चीजें, जैसे संस्कृति और आस्था, भी जरूरी हैं। इस्लाम में मौत को स्वीकार करने से मन को सुकून मिलता है।

आखिरी बात: मौत एक हकीकत, जिंदगी एक मौका

"मैं कब मरूंगी" का पक्का जवाब कोई नहीं दे सकता। साइंस औसत उम्र बताता है, इस्लाम कहता है कि ये सिर्फ अल्लाह को पता है। जिंदगी की उम्र बढ़ रही है, लेकिन उसकी भी एक सीमा है। इस्लामी नजरिया मौत को एक बदलाव मानता है, जो हमें बेहतर जिंदगी जीने की हिम्मत देता है। याद रखो, हर सांस एक तोहफा है। अच्छे काम करो, सेहतमंद रहो, और मौत की तैयारी रखो।

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