Islam Se Pehle Arab Ke Halat Part 2 । इस्लाम से पहले अरब के हालात पार्ट 2

 अस्लाम अलैकूम व रहमतुल्लाहि व बरकातहू

इस्लाम से पहले अरब के हालात पार्ट 2 को पढ़ने से पहले इस्लाम से पहले अरब के हालात पार्ट 1 को पढ़ें । पार्ट 1 मे हमने बहुत ही तफसील से इस्लाम से पहले अरब के हालात पे रोशनी डाली है । जिससे आपकों और बारीकी से इस्लाम से पहले अरब के हालत को समझने में सहायता मिलेगी। Islam Se Pehle Arab Ke Halat in Hindi Part 1


Islam Se Pehle Arab Ke Halat in Hindi । इस्लाम से पहले अरब के हालात हिन्दी में।

Islam Se Pehle Arab Ke Halat Part -2


अरब मे बूत परसती का आगाज।

अरब के आम बाशिंदे इस्माइल अलैहिस्सलाम की तबलीग़ के नतीजे में दिने इब्राहिम के पैरोकार थे। इसलिए सिर्फ अल्लाह की इबादत करते थे और तौहीद पर कायम थे। लेकिन वक्त गुज़रने के साथ साथ उन्होंने अल्लाह के अहकामात को भुला दिया। फिर भी उनके अंदर तौहीद और दिने इब्राहिम के कुछ आसार बाकी रहे। यहां तक के बनु कज़ा का सरदार उमरो बिन रोंही मंजर ए आम पर आया। उसकी बेशुमार नेकी सदका खैरात और दीनी बातों में दिलचस्पी की बुनियाद पर हुई थी। इसलिए लोगों ने उसे मोहब्बत की निगाह से देखा। उसे बड़ा आलीम और अल्लाह का वलि समझकर उसकी पैरवी की। फिर उस शख्स ने मुल्क शाम का सफर किया। उसने देखा वहां बुतों की पूजा हो रही थी। उसने समझा के ये तरीका भी अच्छा है और बरहक है। क्योंकि मुल्क शाम पैगम्बरों की सर जमीन थी, आसमानी किताबें वहा नाजिल हुई थी। चुनांचे वहाँ से वापसी पर अपने साथ हबल बूत भी ले आया और उसे खाना काबा के अंदर नसब कर दिया और पुरे मक्का को खाना काबा के साथ शिर्क की दावत दी।
पुरे मक्का के लोगो ने इस पर लबैक कहा। इसके बाद बहुत जल्द उसमें हिजाज़ के बाशिंदे भी शामिल हो गए। वो भी उनके नक्शे कदम पर चल पड़े। इस तरह अरब में बुतपरस्ती का आगाज़ हुआ।
हबल के अलावा अरब के कदीम तरीन बूथों में से एक मानं था। जो के बहरे अहमर के साहिल पर नस्ब था । इसके बाद हिजाज़ के हर खित्ते में बूतो की भरमार हो गई। कहा जाता है कि एक जिन अमरो बिन लोही किताबें था। उसने बताया की कौम ए नूह के बूत जेदाह में दफन हैं। इसी तलब पर वो जेदाह गया और इन बूतो को खोज निकाला और उनको वापस लाया और उनको मुख्तलिफ कबायल के हवाले किया। ये कबायल इन बूतो को अपने अपने इलाके में ले गए । इस तरह हर हर कबीले में और फिर हर घर में एक एक बूत हो गया। इसी पर बस नहीं की गई। उसके बाद मुशरिकीन मस्जिद ए हराम को भी बूतो से भर दिया।

खाना काबा से बुतों का सफाया।

चुनांचे जब मक्का फतह हुआ तो बैतुल्लाह और मस्जिद ए हराम और उनके इर्द गिर्द 360 बूत मौजूद थे। जिनको खुद रसूलल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने अपने दस्ते मुबारक से तोड़ा। आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम हर एक बूत को छड़ी से ठोकर मारते और वह गिर जाता। फिर आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने हुक्म दिया। इन तमाम बूतो को मस्जिद ए हराम से बाहर निकाल दो। चुनांचे उन सारे बूतो को मस्जिद ए हराम से निकालकर जला दिया गया। अहले जाहिलीयत ये समझते थे कि बूतो की पूजा दिन ए इब्राहिम में तब्दीली नहीं। बल्कि बिद्दत ए हुसना हैं इनमें बुतपरस्ती की क्या क्या रस्मों रिवाज थी। आइए जानते हैं।
1- उस दौर के जाहिल मुशरिक बूतो के पास मुजाहिर बनकर बैठते थे, उनकी पनाह ढूंढ़ते थे, उन्हें ज़ोर ज़ोर से पुकारते थे। हाजत रजाई और मुश्किल कुशाई के लिए उनको पुकारते थे। और समझते थे की वो अल्लाह से सिफारिश करके उनकी मुश्किल हल करवा देंगे।
2- वो बूतों का हज और तवाफ करते थे। उनके सामने इज्जत से पेश आते थे। और उन्हें सजदा करते थे।

3- बूतो के लिए नज़राने और कुर्बानियां पेश करते थे। और कुर्बानियों की इन जानवरों को कभी बूतो के आसतानो पर जा जेबाह करते थे और कभी किसी और जगह जेबाह कर लेते थे। मगर बूथों के नाम पर जेबाह करते थे।


ज़ेबाह की इन दोनों सूरतों का जिक्र अल्लाह तआला ने कुरआन ए मजीद की सूरह मायदा की आयत नंबर 33 में किया है।
" यानी वो जानवर भी हराम है जो आस्थानों पर जेबाह किए गए है"।
दूसरी जगह यानी सूरह इनाम की आयत नंबर 121 में फरमाते हैं। "यानी उस जानवर का गोश्त मत खाओ जिसपर अल्लाह का नाम ना लिया गया हो।,"

4- बूतों का कुर्ब हासिल करने का एक तरीका ये भी था। के मुश‌रीकिन अपनी समझ के मुताबिक अपने खाने पीने की चीजें और खेती की पैदावार का एक हिस्सा बूतो के लिए खास करते थे। इस सिलसिले में उनका दिलचस्प रिवाज ये था कि वो अल्लाह के लिए भी अपने जानवरों और खेती का एक हिस्सा खास करते थे। फिर मुख्तलिफ असबाब के बिना पर अल्लाह का हिस्सा तो बूतो की तरफ मुत्किल कर सकते थे। लेकिन बूतो का हिस्सा किसी भी हाल में अल्लाह की तरफ मुत्किल नहीं कर सकते थे।
इस बुरी आदत का तजकरा भी अल्लाह ताला ने सूरह इनाम के आयत नंबर 136 में किया है।
"अल्लाह ने जो खेती और चौपाए पैदा किये है उसका एक हिस्सा उन्होंने अल्लाह के लिए मुकर्रर किया और खुद कहते है की ये अल्लाह के लिए है और ये हमारे सोरोंका के लिए है। तो जो उनके सोरोका के लिए होता है वो तो अल्लाह के लिए नहीं पहुंचता मगर जो अल्लाह के लिए होता है वो उनके सुरोंका के लिए पहुँच जाता है। कितना बुरा है वो फैसला जो ये लोग करते हैं।"

बुतों का कूर्ब हासिल करना 


बूतो का कुर्ब हासिल करने का एक तरीका ये भी था। के वो मुशरिकीन चौपायों और खेती में मुख्तलिफ किस्म की नजरें बांधते थी। अल्लाह ताला सूरह नाम के आयत नंबर 138 में फरमाते हैं। उन मुशरिकीन ने अपने ख्याल पर ये भी किया। के ये चौपाए और खेतिया मकरूह है उन्हें वही खा सकता है जिन्हें हम चाहें। और वो ये चौपाये हैं जिनके पीठ हराम की गई है यानी ना उन पर सवारी की जा सकती है और ना सामान लादा जा सकता है। और कुछ पाए ऐसे हैं जिनपर ये लोग अल्लाह पर एफतरा करते हुए अल्लाह का नाम नहीं लेते। ये थे उनके अकायद।

बहिरा और हाम के तफसीलात।


इन्हीं जानवरों में बहिरा सायबा और हाम थे। इब्ने इसहाक कहते हैं कि "बाहिरा" साहिबा की बच्ची को कहा जाता है। और साहिबा उस उतनी को कहा जाता है। जिससे पै दर पै मादा बच्चे पैदा हो । दरमयान में कोई नर न हो। ऐसी उटनी को आजाद छोड़ दिया जाता था, उस पर सवारी नहीं की जाती थी। उसके बाल भी नहीं काटे जाते थे और मेहमान के सिवा उसका दूध कोई भी नहीं पी सकता था ।
उसके बाद वो अपनी जो मादा बच्चा जनती, उसका कान चीर दिया जाता। और उसे भी उसकी माँ के साथ आजाद छोड़ दिया जाता । उस पर सवारी भी ना की जाती उसके बाल न काटे जाते। और मेहमान के सिवा कोई उसका दूध नहीं पीता। इसी को बहिरा कहते हैं। और साहीबा उसकी माँ है।


हाम उस ऊंट को कहते हैं जिसकी ऊंटनी से पै दर पै मादा बच्चे पैदा होते दरम्यान में कोई नर नही होता। ऐसी ऊट की पीठ महफूज कर दी जाती थी, ना उस पर सवारी की जाती और न उसके बाल काटे जाते थी, बल्कि उसको ऊंटों के रेवड़ में छोड़ दिया जाता। इसके सेवा उससे कोई और फायदा न उठाया जाता।


अरब अपने बूतो के साथ ये सब इस अकीदे से करते थे की ये बूत उन्हें अल्लाह के करीब कर देंगे। और अल्लाह के हजूर उनकी सिफारिश कर देंगे। चुनाँचे मुशरिकीन जो कहते थे

अल्लाह तआला ने कुरआन ए मजीद में सूरह जूमर की आयत नंबर 3 में इसका इस तरह तजकरा किया है।

"हम उनकी इबादत सिर्फ इसलिए कर रहे हैं कि वो हमें अल्लाह के करीब कर दे।"

इसी तरह कुरान ए करीम की सूरह यूनस की आयत नम्बर 18 में ये अल्फ़ाज़ आये हैं।
"ये मुशरिकीन अल्लाह के सिवा उनकी इबादत करते हैं, जो उन्हें ना नाफा पहुंचा सके ना नुकसान। और कहते की ये अल्लाह के पास हमारे सिफारिशी है।"

मुशरिकीन ए अरब काहिनो और नजूमियों की खबरों पर भी ईमान रखते थे।


काहीन के मायने ।

काहीन उसे कहते हैं जो आने वाले वाक़्यात की पेशगोइ करें। और जो छुपे हुए राजो को जानने का दावा करें।

नजूमी के मायने ।

नजूमी उसे कहते हैं, जो सितारों पर गौर करके उनकी रफ्तार और औकात का हिसाब लगाकर पता लगाता है के दुनिया में आइंदा क्या हालात और वाक़्यात पेश आएंगी । उन नजूमियों की खबरों पर इमान लाना दरअसल सितारों पर ईमान लाना है।

मुशरिकीन में बदशकुनी का भी रिवाज था। उसकी सूरत ये थी की मुशरिकीन किसी चिड़िया या हिरन के पास जाकर उसे भगाते थे। अगर वो दाएं तरफ भागता तो उसे अच्छा शगुन समझते थे। कामयाबी की अलामत ख्याल करते थे और अपना काम कर लेते। और अगर वो बाएं तरफ भागता तो उसे नहूसत ख्याल करके अपने काम से बाज रहते। इसी तरह कोई चिड़िया या जानवर रास्ता काट देता तो उसे मनहूस ख्याल करते। मुझे इसी से मिलते जुलते एक हरकत यह थी कि मुशरिकीन खरगोश के टखने की हड्डी लटकाते थे। और बाज दिनों बाज महीनों बाज जानवरों और बाज औरतों को मनहूस जानते थे। आज के दौर में भी ऐसी बातें सुनने में आती है। काली बिल्ली रास्ता काट गई अल्लाह खैर करे वगैरह।

कुरैशी कबीले की बिद्दत ।

कुरैश की एक बिद्दत ये थी की वो कहते थे की हम सय्यदना इब्राहिम अलैहिस्सलाम की औलाद हैं। हरम के पास बान बैतुल्लाह के वली और मक्के के बाशिंदे है। कोई शख्स हमारा हम मर्तबा नहीं। और ना किसी के हुकूक हमारे हुकुक के मसावी है। इसलिए ये लोग अपना नाम हंस यानी बहादुर रखते थे। लेहाजा हमारे शायाने शान नहीं कि, हम हदुद ए हरम से बाहर जाये। चुनांचे हज के दौरान ये लोग अरफ़ात नहीं जाते थे। बल्कि मुज्दलफा में ही ठहर कर वहीं से अफ़ज़ा कर लेते थी।
अल्लाह तआला ने इस बिद्दत की इस्लाह करते हुए सूरह बकरा की आयत नंबर 199 में फरमाया। 
"यानी तुम लोग भी वहीं से अफ़ज़ा करो, जहां से सारे लोग अफ़ज़ा करते हैं।"


उनकी एक बिद्दत ये भी थी की वो बैरुने हरम के बासींदो को हूक्म दे रखा था के वो हरम में आने के बाद पहला तवाफ हंसे हासिल किए गए कपड़ों में ही करें। चुनांचे अगर उनका कपड़ा दस्तेआब न होता तो मर्द नंगे तवाफ करते और औरतें अपने सारे कपड़े उतार कर एक छोटे से कुर्ते में तवाफ करती।
अल्लाह ताला ने इन खुराफात के खात्मे के लिए सूरह आराफ़ की आय नंबर 31 में फरमाया।
"यानी ऐ आदम के बेटों हर मस्जिद के सामने अपनी जीनत अख्तियार करो।"
ये दीन यानी शिर्क और बुतपरस्ती और तोहमात और खुराफात पर मधुबनी अकीदे वाला दीन ए आम अहले अरब का दिन था। इसके अलावा जजीरा अरब के मुख्तलिफ अतराफ में यहूदीयत मसीहीयत और मज्जूफियत ने कदम जमा लिए थे।

अरब में यहूदीयत का दौर।

जज़ीरा अरब में यहूदियों का दौर उस वक्त से शुरू होता है। जब फलस्तीन में बाबुल और आशूरा की हुकूमत के फतुहात की वजह से यहूदियों को अपना वतन छोड़ना पड़ा। इस हुकूमत की सख्तगिरी के हाथों यहूदी बस्तियों की तबाही और वीरानी, उनकी कल की बर्बादी और उनकी अक्सरियत के मुल्क बाबुल से जिला वतनी का नतीजा ये हुआ की यहूद की एक जमात फलस्तीन छोड़कर हेजाज के शुमाल में आ बसी। और यसरब और खैबर में आबाद होकर यहाँ बकायदा अपनी बस्तियां बसा ली। किले तामीर कर लिए और गाड़ियां बना ली। वतन छोड़कर आने वाले उन यहूद के जरिए अरब बाशिंदों में किस कदर यहूद का भी रिवाज आम हुआ। और इस्लाम के जहुर से पहले उसको भी एक अच्छी भली हैसियत हासिल हो गई।

इस्लाम के जहुर के वक्त मशहूर, यहूद कबायल ये है।

खैबर, नजीर, मस्तलक, कुरैजा और कैंका।
जहाँ तक ईसाई मज़हब का ताल्लुक है, अरब मे इसकी आमद हबसी और रोमी कब्जा गिरो और रोम फातहीन के जरिये हुई।

यमन पर हबसियो का कब्जा और ईसाई मजहब की तबलीग़ ।

यमन पर हबशियों का कब्जा पहली बार 340 ईस्वी में हुआ। और 378 ईसवी तक बरकरार रहा। इस दौरान यमन में मसीही मिशन काम करता रहा। तकरीबन उसी जमाने में एक मुत्तकी और परहेजगार शख्स नजरान पहुंचा। और वहाँ के बाशिंदों में ईसाई मजहब की तबलीग की। नजरान के लोगों को उसके दिन में कुछ ऐसी सच्ची आलामात नजर आयी। के वो इसाई हो गए।

जहाँ तक मजूसियत का ताल्लुक है तो उसे ज्यादातर अहले फारिस के हमसाया अरबों में फरोह हासिल हुआ। मसलन, इराक अरब, बहरीन और खलीज अरब के साहिली इलाकों में, उनके अलावा यमन में फारसी कब्जे के दौरान। वहाँ भी इक्का दुक्का अफराद ने मजुसियत कबूल की। अरब के बाकी दिनों को मानने वालों का हाल भी मुशरिकीन जैसा था। क्योंकि उनके दिल भी एक जैसे थे, अकायद एक जैसे थे। और रस्मों रिवाज में भी हम अंहगी थी।

औरतों के हकूक और उनका एहतराम।

अरब आबादी मुख्तलिफ तबकात में बंटी हुई थी। हर तबके के हालात एक दूसरे से बहुत ज्यादा मुख्तलिफ थे। चुनांचे मोअजज तबके में औरत और मर्द का ताल्लुक खासा तरक्की याफ्ता था। औरत को बहुत खुदमुख्तारी हासिल थी, उसकी बात मानी जाती थी, उसकी इस कदर हिफ़ाज़त और एहतराम किया जाता था कि उसके खातिर तलवारें सौंप दी जाती थी। आदमी जब अपनी शुजात और बहादुरी पर बात करना चाहता, अपनी तारीफ करना चाहता तो अमूमन औरत ही को मुखातिब करता। शुजात और सखावत को उनके दरमयान बहुत बड़ा दर्जा हासिल था। अक्सर उनमें सुलह के लिए औरत ही अहम किरदार अदा करती थी। वो चाहतीं तो कबायल को सुलह के लिए आमादा कर लेती थी। और चाहती तो कबायल के दरमयान जंग की आग भड़का देती थी। लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद खानदान का सरबराह मर्द ही को माना जाता था। और उसके बाद फैसला कून होती थी । इस तबके में मर्द और औरत का तआलूक अक्दे निकाह से होता था। ये निकाह औरत की वलियो की निगरानी में तय पाता था। औरत को उनकी विलायत के बगैर निकाह का हक हासिल नहीं था।

अरबों मे जाहिलीयत और खुराफात का दौर।

एक तरफ तबका ए अज्रा यानी मोअजीज लोगों का ये हाल था। तो दूसरी तरफ दूसरे तबकों में मर्द औरत के एखतला की और भी कई सूरते , जिन्हें बदकारी और बेहयाई, फ़ाहाशी और जनाकारी के अलावा कोई नाम नहीं दिया जा सकता। ज़माना जाहिलीयत में किसी हद के बगैर मोतद्दीद बीवियां रखना एक आम बात थी। लोग दो सगी बहनों को भी बयां वक्त अपने निकाह में रख लेते थे। बाप की बीवी को तलाक देने के बाद या उसके मर जाने पर बेटा अपनी सौतेली माँ से भी निकाह कर लेता था। तलाक का अख्तियार मर्द को हासिल था और उसकी कोई भी हद मुकर्रर नहीं थी। जिनाकारी तमाम तबकात में उरूज पर थीं। अलबत्ता कुछ मर्द और कुछ औरतें ऐसे जरूर थे जिन्हें अपनी बड़ाई का एहसास गंदगी के कीचड़ मे लथपथ होने से बाज़ रखता। फिर आजाद औरतो का हाल लौंडियों के निसबत अच्छा था। असल मुसीबत लौंडिया ही थी। ऐसा लगता है उन जाहिलों की अक्सरियत इस बुराई की तरफ मतवजह होने में कोई आर महसूस नहीं करती थी। जाहिलीयत में बाप बेटे का ताल्लुक भी मुख्तलिफ नवईत का था। कुछ तो ऐसे थे जो कहते थे कि हमारी औलाद हमारे कलेजे हैं जो रुए जमीन पर चलते फिरते है। जबकि कुछ लोग ऐसे भी थे जो लड़कियों को रुसवाई के ख्व़ाब से जिंदा दफन कर देते थे और बच्चों को फक्रो फांकें के डर से मार डालते थे। तो हम ये कहना मुश्किल है की ये संगदिली बड़े पैमाने पर राइस थी। खुराफात का दौर दौरा था। लोग जानवरो जैसी जिंदगी गुजार रहे थे। औरत बेची और खरीदी जाती थी बाज औकात उससे मट्टी और पत्थर जैसा सलूक किया जाता था।

अरबों के तिजारत और बाजार।

कौम के बाहमी ताल्लुकात कमजोर बल्कि टूटे हुए थे। रह गयी हुकूमते तो उनको सिर्फ अपना खजाना भरने से ही फुर्सत नहीं थी या मुखालिफों पर फौजकशी करने की फिक्र थी। इत्तशादी हालत भी खराब थी। सिर्फ तिजारत ही उनके नजदीक जुरूरियात ए ज़िंदगी हासिल करने का सबसे अहम जरिया थी। और तिजारत के लिए अमन वो सलामती की फिजां का होना जरूरी वरना तिजारती अमद वो रफ्त नहीं हो सकती। जबकि उनका हाल ये था के सेवाएं हुरमत वाले महीनों के अमन और सलामती का कोई नामोनिशान न था। यही वजह है कि सिर्फ हूरमत वाले महीनों में अरब के मशहूर बाज़ार लगते थे। जहाँ तक सनतों का मामला है तो अरब इस मैदान में सारी दुनिया से पीछे थे। कपड़े की बनाई और चमड़े की रंगाई वगैरह की शक्ल में जो चंद सनते पाई भी जाती थी। वो यमन, हीरा और शाम से मिले हुए इलाकों में थी। अलबत्ता अंदरूनी अरब में गल्लाबानी और खेती बाड़ी का किसी कदर रिवाज था। सारी अरब औरतें सूत काटती थीं । लेकिन मुश्किल ये थी के सारा मालोमता हमेशा लड़ाईयों की जद में रहता था। गुरबत आम थी। लोग जरूरी लिबास तक से महरूम , ये बात तो मशहूर है की अहले जाहिलीयत में कमीनी और रजील अदाद पाई जाती थी। अकल के खिलाफ बातों की भरमार थी । उनमें कुछ पसंदीदा एकलाख भी थे। इन इस्लेहात को देखकर इंसान दंग रह जाता था।

अरबों की कुछ खुबियां ।

1- उनकी एक खूबी यह थी। के वो एक दूसरे से आगे निकल जाने की कोशिश में लगे रहते थे।
और इस पर फक्र करने का आलम ये था की अरब के आधे असार इसी की नजर हो जाते थे। इस वसफ़ की बुनियाद पर कोई अपनी तारीफ करता था तो कोई दूसरो की। हालत ये थी कि सख्त सर्दी और भूख की हालत में भी कोई मेहमान आ जाता। और मेजबान के पास अपनी सवारी वाली ऊंटनी के सिवा कुछ ना होता। और कुनबे की जरूरत पूरी करने का जरिया भी वही सवारी होती। तो वो मेहमान के लिए जेबाह कर देता। वो जुआ खेलते थे। उनका ख्याल था की ये भी शखावत की एक किस्म है क्योंकि उन्हें जो नफा हासिल होता, यह नफा हासिल करने वालों से जो कुछ जायद बच जाता। उसको वो मिशकिनों को दे देते थे।
इसीलिए कुरान ए पाक ने शराब और जुए के नफे का सिरे से ही ज़िक्र नहीं की।
बल्कि सूरह बकरा की आयत 219 में फरमाया। "इन दोनों का गुनाह उनके नफा से बढ़कर है "

2-इफाए अहद
यानी वादे का पूरा करना
दौरे जाहिलीयत एखलाकन फाजेलहिन से है। अहद को उनके नजदीक दीन की हैसियत हासिल थी जिससे वह हर हाल में चिमटे रहते थे और इस रास्ते में अपनी औलाद का खून और अपने घर बार की तबाही भी हेज समझते थे।

3- खुद्दारी और इज्जत ए नब्ज़ इस पर कायम रहना और ज़ुल्मो जब्र बर्दाश्त न करना भी अहले जाहिलीयत के अवसाफ में से था। इसका नतीजा ये था कि उनकी सुजात और गैरत हद से बढ़ी हुई थी। वो फौरन भड़क उठते थे और छोटी सी छोटी तौहीन बात पर तलवार और नेजा उठा लेते थे। और निहायत खून रेज जंग छिड़ जाती और उन्हें इस जंग में अपनी जान की परवाह न रहती थी।
4- अजाऐम की तक्मिल। अहले जाहिलीयत में एक खास बात ये भी थी कि वो जब किसी काम को फखर का जरिया समझकर अंजाम देने पर तुल जाते तो फिर कोई रुकावट उन्हें रोक नहीं सकती थी। वो अपनी जान पर खेलकर उसको अंजाम दे डालते थे।

5- संजीदगी-
- ये खूबी भी उनके करीब काबिले फखर थी। क्योंकि उनके शुजात हद से बढ़कर थी।

6- सादगी
यानी रहन सहन की उलझनों और दांव पेच से नावाकिफ थे। इसका नतीजा ये था कि उनमें सच्चाई और अमानतदारी पायी जाती थी। धोखा धड़ी और बद अहदी से दूर थे। गालिब उनके अखलाक मे इफाए अहद और आजम की पुख्तगी की सबसे ज्यादा नफा मन थी। क्योंकि इस जबरदस्त कुवैत और पुख्ता इरादे के बगैर शरों फसाद का एखतताम और निजामे अदल का कयाम मुमकिन नहीं था।

नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की बिलादत

हमारे रसूले मकबूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के विलादत बा सआदत मौसमे बहार में पीर के दिन सुबह सादीक के बाद और सुरज निकलने से पहले 9 रबी अव्वल सन् आमूल फेल 20 या 22 अप्रैल 571 ईसवी को मक्का मुकर्रमा में हुई। पीर ( सोमवार ) का दिन आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की मुबारक जिंदगी में बड़ी अहमियत का हामिल है। आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की वालिदा का नाम सय्यदा आमना था।

सय्यदना इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु तआला अन्हु फरमाते हैं। आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम पीर के दिन पैदा हुए। आएं सोमवार के दिन ही आपको नबूवत से सरफराज़ फ़रमाया गया। सोमवार को मक्का से मदीना हिज़रत करने के लिए निकले। सोमवार ही को आप मदीना मुनव्वरा तशरीफ लाए। और आपने पीर ही के दिन को दुनिया से पर्दा फ़रमाऐ । 

आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के पैदा होते ही आपके दादा अब्दुल मुतलिब आप को गोद में उठाकर खाना काबा में ले गए, आपके लिए दुआ की और मोहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम नाम रखा। पोते की पैदाइश की खुशी में सातवें दिन अपने कबीले की दावत की। लोगों ने आपके दादा से पूछा के नौमौलूद का नाम दूसरे लोगों जैसा क्यों नहीं रखा? उन्होंने जवाब दिया। मैं चाहता हूँ कि मेरे पोते पर इस नाम का असर पड़े और मेरा पोता तारीफ वो तोसीफ हासिल करें। आपकी वालिदा ने आपका नाम अहमद रखा। 

कुरान मजीद में सूरह अम्बिया की आयत नंबर 107 में अल्लाह तआला ने आपको रहमतुल लिल आलमिन कहा है। हमने आपको तमाम जहानों के लिए रहमत बनाकर भेजा है।

नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम का नसब नामा

मोहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन अब्दुल मुतालिब बिन हशिम बिन अब्दे मनाफ बिन कुसाई बिन किलाब बिन मुर्राह बिन काब बिन लूअई बिन गालिब बिन फिहर बिन मालिक बिन नज़र बिन किनाना बिन खुजैमा बिन मदुरिका बिन इल्यास बिन मुज़र बिन निजारा बिन माद बिन अदनान ।

इस बात पर सब का इतफाक है कि अदनान सय्यदना इस्माईल अलैहिस्सलाम की नस्ल से है लेकिन दोनों के दरमयान कितनी पुस्ते हैं और उनके नाम क्या है? इसमें बहुत इख्तलाफ पाया जाता है। 











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