इस्लाम में मां का दर्जा – जन्नत उसके कदमों तले | Quran aur Hadith ke roshni me maa ki azmat aur maqam

इस्लाम में मां का दर्जा – जन्नत उसके कदमों तले

इस्लाम एक ऐसा धर्म है जो इंसानियत, रहमत और मोहब्बत का पैग़ाम देता है। और इस इंसानियत की सबसे बड़ी मिसाल मां है।
मां वो शख़्सियत है जो अपने बच्चे को बिना किसी स्वार्थ के चाहती है, उसकी हिफाज़त करती है, और उसके लिए हर दर्द को मुस्कुराकर झेलती है।
इसलिए इस्लाम में मां को वो इज़्ज़त दी गई है जो किसी और रिश्ते को नहीं दी गई।

कुरान और हदीस दोनों इस बात की तस्दीक करते हैं कि मां की खुशामदी अल्लाह की खुशामदी है, और मां की नाराज़गी अल्लाह की नाराज़गी है।
नबी ﷺ ने फरमाया —

“जन्नत तुम्हारी मां के कदमों तले है।”
(सुन्नन अन-नसाई 3104)

इस एक जुमले ने मां की शख्सियत को वो मक़ाम दिया जो दुनिया की किसी किताब में नहीं मिलता।


इस्लाम में मां का दर्जा – जन्नत उसके कदमों तले
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कुरान में मां की अहमियत और दर्जा

अल्लाह तआला ने कुरान में कई बार मां-बाप की इज़्ज़त का हुक्म दिया, लेकिन मां की तकलीफ़ों का ज़िक्र खास तौर पर किया गया।

“और हमने इंसान को अपने मां-बाप के साथ अच्छा बर्ताव करने का हुक्म दिया। उसकी मां ने उसे तकलीफ़ पर तकलीफ़ सहकर पेट में रखा, और तकलीफ़ सहकर जना।”
(सूरह लुक़मान 31:14)

यह आयत सिर्फ़ हुक्म नहीं, बल्कि एक याददिहानी है — कि मां ने जिन मुश्किलों से गुज़ारा, वो अल्लाह की नज़र में इतनी बड़ी हैं कि बच्चे को हमेशा एहसानमंद रहना चाहिए।

एक और आयत में अल्लाह फ़रमाता है:

“हमने इंसान को ताकीद की कि वो अपने मां-बाप के साथ अच्छा सुलूक करे। उसकी मां ने कमजोरी पर कमजोरी झेली और उसका दूध छुड़ाना दो साल में पूरा हुआ।”
(सूरह अल-अहक़ाफ 46:15)

इन दोनों आयतों में “मां” का ज़िक्र अलग से किया गया है, जो दिखाता है कि इस्लाम ने औरत की मातृत्व (motherhood) को कितना ऊँचा दर्जा दिया है।

हदीसों में मां की इज़्ज़त का बयान

रसूलुल्लाह ﷺ के दौर में एक सहाबी हज़रत अबू हुरैरा (रज़ि.) बयान करते हैं कि एक व्यक्ति ने पूछा —

“या रसूलल्लाह ﷺ! मेरे अच्छे बर्ताव का सबसे ज़्यादा हक़दार कौन है?”
आप ﷺ ने फ़रमाया: “तुम्हारी मां।”
वो शख़्स बोला: “उसके बाद कौन?”
आप ﷺ ने फिर कहा: “तुम्हारी मां।”
वो बोला: “फिर उसके बाद कौन?”
आप ﷺ ने तीसरी बार कहा: “तुम्हारी मां।”
फिर चौथी बार आपने कहा: “फिर तुम्हारा बाप।”
(बुखारी, मुस्लिम)

यह हदीस बताती है कि मां का हक़ पिता से तीन गुना ज़्यादा है — क्योंकि वो दर्द, तकलीफ़, मोहब्बत और कुर्बानी में सबसे आगे है।

मां की कुर्बानियाँ – जो किसी और की नहीं

मां का सफ़र एक इम्तेहान है:

  • पहला दर्द: जब वो बच्चे को अपने पेट में रखती है।
    हर दिन उसके शरीर पर बोझ बढ़ता है, लेकिन वो हर दर्द को खुशी से सहती है।

  • दूसरा दर्द: जब बच्चे को जन्म देती है — मौत की सरहद तक पहुँचकर भी बच्चे की ज़िन्दगी की दुआ करती है।

  • तीसरा दर्द: जब बच्चा बड़ा होता है — उसके हर दर्द में मां का दिल भी जलता है।

  • चौथा इम्तेहान: जब बच्चा जवान होता है और मां की बात सुनना छोड़ देता है।

इसलिए इस्लाम ने मां की खिदमत को इबादत कहा है।
रसूल ﷺ ने फरमाया:

“जिसने मां-बाप की खिदमत की और उनके साथ अच्छा सुलूक किया, उसके लिए जन्नत का दरवाज़ा खुला रहेगा।”
(तिर्मिज़ी 1905)

मां की दुआ – सबसे बड़ी नेमत

नबी ﷺ ने फरमाया:

“तीन दुआएँ ऐसी हैं जो कभी रद्द नहीं होतीं – मां की दुआ, मुसाफ़िर की दुआ और मज़लूम की दुआ।”
(तिर्मिज़ी 1905)

मां की दुआ बच्चे की ज़िन्दगी को बदल सकती है।
कई बार बच्चे मेहनत करते हैं लेकिन सफलता तब मिलती है जब मां की दुआ साथ होती है।
मां की दुआ अल्लाह के दरबार में बिना रुकावट के पहुँचती है।

मां की नाराज़गी – अल्लाह की नाराज़गी

रसूल ﷺ ने कहा:

“अल्लाह की रज़ा मां-बाप की रज़ा में है और अल्लाह की नाराज़गी मां-बाप की नाराज़गी में।”
(तिर्मिज़ी 1899)

अगर मां किसी बात पर नाखुश हो जाए, तो उसकी नाराज़गी दुनिया और आख़िरत दोनों में नुकसान बन सकती है।
इसलिए बेटा या बेटी चाहे कितने भी बड़े हों, मां के सामने झुकना ही इज़्ज़त का असली मतलब है।

मां की खिदमत – इबादत का दरवाज़ा

मुसलमानों के लिए मां की सेवा करना सिर्फ़ फ़र्ज़ नहीं, बल्कि सबसे अज़ीम इबादत है।
कई हदीसों में बताया गया है कि अगर कोई इंसान अपने मां-बाप की खिदमत करता है, तो उसकी उम्र, रोज़ी और बरकत बढ़ती है।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ि.) से रिवायत है कि एक शख़्स अपनी मां को अपनी पीठ पर बैठाकर तवाफ़ करा रहा था।
वो बोला: “या अब्दुल्लाह! क्या मैंने अब अपनी मां का हक़ अदा कर दिया?”
उन्होंने जवाब दिया:

“नहीं, तूने उसकी एक रात की तकलीफ़ का बदला भी नहीं चुकाया।”
(बुखारी, अदबुल मुफ़रद)

मां और बेटी का रिश्ता – रहमत की मिसाल

इस्लाम में मां-बेटी का रिश्ता बहुत पवित्र माना गया है।
कई बार बेटियाँ सोचती हैं कि मां सख़्त मिज़ाज है, लेकिन वो सख़्ती तर्बियत के लिए होती है।
रसूल ﷺ ने फरमाया:

“जो अपनी बेटियों की अच्छी तर्बियत करता है, वो जन्नत में मेरे साथ होगा।”
(तिर्मिज़ी 1910)

इससे ये साबित होता है कि जिस मां ने अपनी बेटी को दीनी तालीम और हया सिखाई — वो मां अपनी बेटी के साथ जन्नत की हक़दार है।

मां के बूढ़ेपन में खिदमत – असली परीक्षा

जब मां बूढ़ी हो जाती है, उसका सब्र, उम्मीद और मोहब्बत और बढ़ जाती है।
लेकिन अफ़सोस कि आजकल बहुत से बच्चे अपनी बूढ़ी मां को बोझ समझने लगे हैं।

कुरान कहता है:

“और अगर वो दोनों या उनमें से कोई एक तुम्हारे पास बुढ़ापे को पहुँच जाए, तो उनसे ‘ऊफ़’ तक न कहना और न झिड़कना, बल्कि उनसे इज़्ज़त से बात करना।”
(सूरह अल-इसरा 17:23)

रसूल ﷺ ने कहा:

“वह ज़लील हो जाए जिसने अपने बूढ़े मां-बाप को पाया और फिर भी जन्नत में दाख़िल न हुआ।”
(मुस्लिम 2551)

यानी अगर तुम्हारे पास मां ज़िंदा है और तुम उसकी खिदमत कर सकते हो — तो जन्नत का दरवाज़ा तुम्हारे लिए खुला है।

मां की मौत के बाद क्या करें?

अगर किसी की मां दुनिया से जा चुकी है, तो उसके हक़ ख़त्म नहीं होते।
उसके लिए दुआ करना, सदक़ा देना और नेक काम करना उसकी रूह को सुकून देता है।

रसूल ﷺ से पूछा गया:

“या रसूलल्लाह ﷺ! मेरी मां का इंतिकाल हो गया है, क्या मैं उसके लिए कुछ कर सकता हूँ?”
आप ﷺ ने फरमाया:
“हाँ, उसके लिए दुआ करो, सदक़ा दो, और रिश्तेदारों से अच्छा सुलूक करो।”
(तिर्मिज़ी 1907)

इसलिए जो बेटा-बेटी अपनी मां को खो चुके हैं, वो हर नमाज़ के बाद यह दुआ पढ़ें:

“رَبِّ ارْحَمْهُمَا كَمَا رَبَّيَانِي صَغِيرًا”
“ऐ मेरे रब, मेरे मां-बाप पर रहम फरमा, जैसे उन्होंने मुझे बचपन में पाला।”
(सूरह अल-इसरा 17:24)

मां के हक़ की अदा कैसे करें (Practical Points)

  1. उनकी हर बात ध्यान से सुनो।

  2. उनके सामने ऊँची आवाज़ न करो।

  3. उनके लिए समय निकालो — मोबाइल से ज़्यादा ज़रूरी मां की बातें हैं।

  4. उनकी तबीयत का ख़याल रखो।

  5. उनकी दुआओं में शामिल रहो।

  6. उनके चेहरे पर मुस्कान लाना भी इबादत है।

  7. अगर ग़लती हो जाए तो तुरंत माफ़ी मांगो।

  8. उनके नाम से सदक़ा दो — ताकि उनकी रूह को सुकून मिले।

मुस्लिम बहनों के लिए पैग़ाम

हर मुस्लिम महिला जो आज खुद मां है — वो सिर्फ़ एक इंसान नहीं, बल्कि उम्मत की बुनियाद है।
मां अगर नेक है, तो आने वाली नस्लें भी नेक होंगी।
इस्लाम ने औरत को सिर्फ़ “घर की ज़िम्मेदारी” नहीं दी, बल्कि उसे समाज को संवारने की ताक़त दी है।

“मां के बिना घर, घर नहीं; और मां के बिना समाज, उम्मत नहीं।”

मां अपनी दुआओं से पूरी कौम को जन्नत की राह दिखा सकती है।
इसलिए मुस्लिम बहनों को चाहिए कि वे अपने बच्चों को दीनी तालीम, ईमान और हया सिखाएँ — यही उनका सबसे बड़ा सदक़ा-ए-जारीया है।

हज़रत फ़ातिमा (رضي الله عنها) की मिसाल

हज़रत फ़ातिमा (र.अ), जो रसूलुल्लाह ﷺ की प्यारी बेटी थीं,
उन्होंने मां होने की सबसे खूबसूरत मिसाल पेश की।
उन्होंने अपने बच्चों — हज़रत हसन और हुसैन (र.अ) — को न सिर्फ़ मोहब्बत दी, बल्कि उन्हें ईमान, सब्र और दीनदारी की तालीम दी।

वह रातों को अपने बच्चों और उम्मत के लिए दुआ करती थीं।
रसूल ﷺ उन्हें देखकर फरमाते थे —

“फ़ातिमा, तू मेरे दिल का सुकून है।”

उनकी जिंदगी से मुस्लिम बहनों को यह सबक मिलता है कि
मां सिर्फ़ खाना खिलाने या कपड़े पहनाने वाली नहीं,
बल्कि ईमान की पहली मुअल्लिमा (teacher) है।


हज़रत आयशा (رضي الله عنها) – इल्म की मिसाल

हज़रत आयशा (र.अ) ने इस्लाम में औरतों के लिए इल्म और तरबियत की राह खोली।
उन्होंने सैकड़ों हदीसें बयान कीं और औरतों को सिखाया कि
मां को सिर्फ़ बच्चे की शारीरिक देखभाल नहीं, बल्कि आख़िरत की सोच भी देनी चाहिए।

उनका कहना था —

“बच्चे की पहली किताब उसकी मां का किरदार है।”

यह बात हर मुस्लिम बहन के लिए एक याद है कि मां के आचरण से ही बच्चे का ईमान बनता है।

निष्कर्ष

इस्लाम में मां का दर्जा सबसे ऊँचा है — उसके कदमों तले जन्नत रखी गई है।
वो हमारे लिए दुआ करती है, हमारे ग़म में खुद जलती है, और हमारी खुशी में सजदा करती है।
उसकी मुस्कान में अल्लाह की रहमत है, उसकी दुआ में हमारी जन्नत है।

इसलिए:

“अगर तूने अपनी मां को खुश कर लिया, तो समझ ले अल्लाह तुझसे राज़ी हो गया।”


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