हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की कहानी – तौहीद, सब्र और कुर्बानी की मिसाल
हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की प्रेरणादायक कहानी
इस्लाम धर्म में हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को "खलीलुल्लाह" यानी "अल्लाह का दोस्त" कहा जाता है। उनकी ज़िंदगी कुरआन और हदीसों में बार-बार बताई गई है क्योंकि वे तौहीद (एक अल्लाह की इबादत) और सब्र की सबसे बड़ी मिसाल हैं। यह लेख हज़रत इब्राहीम की ज़िंदगी के सभी महत्वपूर्ण वाक़िआत को विस्तार से प्रस्तुत करता है — उनके संघर्ष, उनका सब्र, उनका बेटा हज़रत इस्माईल और आग में फेंके जाने का चमत्कारिक वाक़िआ।
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1. जन्म और प्रारंभिक जीवन
हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम का जन्म बाबिल (Babylon) नामक नगर में हुआ था। उनके पिता का नाम आज़र था, जो मूर्तियों का कारगर था। वे मूर्तियों को बनाता और बेचता था, और लोगों को शिर्क (अल्लाह के साथ किसी और को भागीदार बनाना) की राह पर चलाता था।
लेकिन हज़रत इब्राहीम ने बचपन से ही इस चीज़ को नकारा। वे सोचते थे कि ये पत्थर के बुत कैसे हमारी मदद कर सकते हैं? कैसे ये अल्लाह हो सकते हैं, जबकि ये खुद को भी नहीं हिला सकते?
कुरआन में कहा गया:
"जब उन्होंने अपने बाप और अपनी क़ौम से कहा: ‘ये कैसी मूर्तियाँ हैं जिनके आगे तुम सिजदा कर रहे हो?’"
— (सूरा अंबिया: 52)
2. तौहीद की दावत और क़ौम की प्रतिक्रिया
हज़रत इब्राहीम ने अपनी क़ौम को समझाया कि एक अल्लाह ही सबका रब है। वही पैदा करने वाला है, वही रोज़ी देने वाला है, और वही हमारी मदद करने वाला है। मूर्तियाँ किसी काम की नहीं हैं।
परंतु उनकी क़ौम ने उनकी बात नहीं मानी। उनके पिता ने भी गुस्से में कहा:
"अगर तूने हमारे देवताओं को बुरा कहा तो मैं तुझे पत्थरों से मार डालूँगा।"
इसके बावजूद हज़रत इब्राहीम ने हार नहीं मानी। उन्होंने एक दिन मूर्तियों को तोड़ डाला और सबसे बड़ी मूर्ति के हाथ में कुल्हाड़ी रख दी।
जब क़ौम आई और मूर्तियाँ टूटी हुई देखीं, तो उन्होंने पूछा, "ये किसने किया?"
हज़रत इब्राहीम ने कहा:
"इस बड़ी मूर्ति ने किया होगा, उसी से पूछो।"
क़ौम शर्मिंदा हो गई लेकिन फिर भी अपनी ग़लती मानने को तैयार नहीं हुई। उल्टा उन्होंने सज़ा देने का फ़ैसला किया।
3. आग में फेंकने का चमत्कार
क़ौम ने बहुत बड़ी आग जलाई और हज़रत इब्राहीम को उसमें फेंक दिया। लेकिन अल्लाह ने आग को हुक्म दिया:
"ऐ आग! ठंडी हो जा और इब्राहीम के लिए सलामती बन जा।"
— (सूरा अंबिया: 69)
आग ठंडी हो गई और इब्राहीम अलैहिस्सलाम को कुछ भी नहीं हुआ। यह अल्लाह का करिश्मा था।
4. हिजरत और नए शहर की ओर
इसके बाद हज़रत इब्राहीम ने अपनी पत्नी हज़रत साराह के साथ बाबिल छोड़ दिया और कई जगहों की यात्रा की — मसर (Egypt), फिलिस्तीन और फिर मक्का। मक्का में उनकी दूसरी पत्नी हज़रत हाजरा और बेटे हज़रत इस्माईल को बसाया।
5. हज़रत इस्माईल की कुर्बानी
हज़रत इब्राहीम को अल्लाह ने सपना दिखाया कि वह अपने बेटे इस्माईल को अल्लाह की राह में कुर्बान कर रहे हैं। उन्होंने अपने बेटे से यह सपना साझा किया, और हज़रत इस्माईल ने फौरन कहा:
"ऐ अब्बा जान! जो आपको हुक्म दिया गया है, उसे अंजाम दें। इंशा'अल्लाह आप मुझे सब्र करने वालों में पाएंगे।"
जब इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने बेटे को ज़िबह करने के लिए लिटाया, अल्लाह ने फरिश्ते को भेजा और कहा:
"हे इब्राहीम! तूने ख्वाब को सच्चा कर दिखाया।"
(सूरा साफ़्फ़ात: 105)
फिर हज़रत इस्माईल की जगह एक दुम्बा (भेड़) भेजा गया, जिसे कुर्बान किया गया। यही वाक़िआ आज भी ईद-उल-अज़हा (बकरीद) के रूप में मनाया जाता है।
6. काबा की तामीर
हज़रत इब्राहीम और हज़रत इस्माईल ने मिलकर ख़ाना-ए-काबा की तामीर की। कुरआन में यह दुआ दर्ज है:
"ऐ हमारे रब! हमारी इस मेहनत को क़ुबूल कर। तू सुनने वाला, जानने वाला है।"
— (सूरा बक़रा: 127)
ख़ाना-ए-काबा मुसलमानों का सबसे मुक़द्दस स्थल है और हर साल लाखों हाजियों का केंद्र बनता है।
7. अल्लाह की दोस्ती और आखिरी वक्त
हज़रत इब्राहीम को "खलीलुल्लाह" का दर्जा मिला, यानी अल्लाह का दोस्त। वे पूरी ज़िंदगी अल्लाह के हुक्म पर चले, कभी सवाल नहीं किया, और सब्र से हर इम्तिहान पास किया।
उनकी मौत एक बुज़ुर्गी की हालत में हुई और उन्हें फिलिस्तीन में दफन किया गया।
सबक जो हमें हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम से मिलता है
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तौहीद पर अडिग रहना: चाहे दुनिया खिलाफ हो जाए, हमें सिर्फ एक अल्लाह की इबादत करनी चाहिए।
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सब्र और इस्तिकामत: आग में डालने जैसी परीक्षाओं में भी हिम्मत और यकीन रखना।
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कुर्बानी: अल्लाह की राह में अपने सबसे क़रीबी रिश्ते और इच्छाओं को भी कुर्बान कर देना।
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दुआ और मेहनत: काबा की तामीर के समय की गई दुआ बताती है कि मेहनत के साथ दुआ भी जरूरी है।
निष्कर्ष
हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की कहानी सिर्फ एक पैग़म्बर की ज़िंदगी नहीं, बल्कि हर मुसलमान के लिए एक नक्शा-ए-राह है। उनकी तौहीद, सब्र, दुआ और अल्लाह पर यकीन हमें बताता है कि अल्लाह अपने नेक बंदों को कभी नहीं छोड़ता।